इस्लाम का उदय और विस्तार लगभग 570 – 1200 ई
अरबी समाज और उनकी जीवन शैली -
(i) अरब के लोग कबीलों में बंटे थे | ये खानाबदोश जीवन व्यतीत करता था |
(ii) प्रत्येक कबीले के अपने देवी देवता होते थे | मक्का में स्थित काबा वहां का मुख्य धर्म स्थल था जिसे सभी मुसलमान इसे पवित्र मानते थे |
(iii) प्रत्येक कबीले का नेतृत्व एक शेख द्वारा किया जाता था, जो कुछ हद तक पारिवारिक संबंधों के आधर पर, लेकिन ज़्यादातर व्यक्तिगत साहस, बुद्धिमत्ता और उदारता के आधर पर चुना जाता था।
(iv) उनका खाद्ध्य मुख्यत: खजूर था |
(v) वहां के कुछ लोग शहरों में बस गए थे और व्यापार एवं खेती का काम करते थे |
पैगम्बर हजरत मुहम्मद और इस्लाम :
सन 612 के आस-पास उन्होंने खुद को खुदा का संदेशवाहक (रसूल) घोषित किया | यही से इस्लाम धर्म की नींव पड़ी | उन्हें यह प्रचार करने का आदेश दिया गया था कि केवल अल्लाह की ही इबादत यानि आराधना की जानी चाहिए | पैगम्बर मुहम्मद के संदेश ने मक्का के उन लोगों को विशेष रूप से प्रभावित किया, जो अपने आपको व्यापार और धर्म के लाभों से वंचित महसूस करते थे और एक नयी सामुदायिक पहचान की बाट देखते थे। जो इस धर्म-सिद्धांत को स्वीकार कर लेते थे, उन्हें मुसलमान (मुस्लिम) कहा जाता था, उन्हें कयामत के दिन मुक्ति और धरती पर रहते हुए समाज के संसाधनों में हिस्सा देने का आश्वासन दिया जाता था।
पैगम्बर मुहम्मद के अनुसार इबादत की विधियाँ - मुसलमानों को दैनिक प्रार्थना (सलत) और नैतिक सिद्धांत, जैसे खैरात बाँटना और चोरी न करना शामिल था |
काबा : काबा एक घनाकार ढाँचा वाला अरबी समाज का धार्मिक स्थल था | इसे ही काबा कहा जाता था जो मक्का में स्थित था | जिसमें बुत रखे हुए थे और हर वर्ष वहाँ के लोग इस इबादतगाह धार्मिक यात्रा (हज) करते थे | मक्का यमन और सीरिया के बीच के व्यापारी मार्गों के एक चौराहे पर स्थित था | काबा को एक ऐसी पवित्र जगह (हरम) माना जाता था, जहाँ हिंसा वर्जित थी और सभी दर्शनार्थियों को सुरक्षा प्रदान की जाती थी।
हिजरा : इस्लाम के शुरूआती दिनों में पैगम्बर मुहम्मद का मक्का और उसके इबादतगाह पर कब्ज़ा था | मक्का के समृद्ध लोग जिन्हें देवी-देवताओं का ठुकराया जाना बुरा लगा था और जिन्होंने इस्लाम जैसे नए धर्म को मक्का की प्रतिष्ठा और समृद्धि के लिए खतरा समझे थे उनलोगों ने पैगम्बर मुहम्मद का जबरदस्त विरोध किया जिससे वे और उनके अनुयायियों को मक्का छोड़ कर मदीना जाना पड़ा | उनकी इस यात्रा को हिजरा कहा जाता है | इसी दिन से मुसलमानों का हिजरी कैलेण्डर की शुरुआत हुई |
पैगम्बर मुहम्मद द्वारा इस्लाम की सुरक्षा : किसी धर्म का जीवित रहना उस पर विश्वास करने वाले लोगों के जिन्दा रहने पर निर्भर करता है | इस लिए पैगम्बर मुहम्मद ने निम्नलिखित तीन तरीकों से इस्लाम और मुसलमानों की रक्षा की |
(i) इस समुदाय के लोगों को आतंरिक रूप से मजबूत बनाया और उन्हें बाहरी खतरों से बचाया |
(ii) उन्होंने सुदृढ़ीकरण और सुरक्षा के लिए मदीना में एक राजनैतिक व्यवस्था को बनाया |
(iii) उन्होंने ने शहर में चल रही कलह को सुलझाया और उम्मा को एक बड़े समुदाय के रूप में बदला गया |
पैगम्बर मुहम्मद द्वारा इस्लाम की स्थापना के लिए किये गए कार्य :
(i) उम्मा को एक बड़े समुदाय के रूप में बदला गया, ताकि मदीना के बहुदेववादियों और यहूदियों को पैगम्बर मुहम्मद के राजनैतिक नेतृत्व के अंतर्गत लाया जा सके।
(ii) पैगम्बर मुहम्मद ने कर्मकांडों (जैसे उपवास) और नैतिक सिद्धांतों को बढ़ा कर और उन्हें परिष्कृत कर धर्म को अपने अनुयायियों के लिए मजबूत बनाया।
(iii) मुस्लिम समुदाय कृषि और व्यापार से प्राप्त होने वाले राजस्व और इसके अलावा खैरात-कर (जकात) से जीवित रहा।
(iv) पैगम्बर मुहम्मद ने समुदाय की सदस्यता के लिए धर्मांतरण को एकमात्र कसौटी बनाया |
(v) धन एवं अधिक क्षेत्र बढ़ाने के लिए ये लोग मक्का के काफिलों और निकट के नखलिस्तानों पर छापे मारते थे और अथवा धावा बोलकर धन लुटते थे |
हजरत मुहम्मद की प्रमुख शिक्षाएँ :
(i) प्रत्येक मुस्लमान को इस बात में विश्वास रखना चाहिए अल्लाह एक मात्र पूजनीय है और पैगम्बर मुहम्मद उसके पैगम्बर है |
(ii) प्रत्येक मुसलमान को दिन में पांच बार नमाज अदा करना अनिवार्य है |
(iii) निर्धनों को जकात (एक प्रकार का दान) देना चाहिए |
(iv) इस्लाम को मानने वाले को रमजान के महीने में रोजे रखना चाहिए |
(v) प्रत्येक मुसलमान को अपने जीवन-काल में एक बार काबा की हज यात्रा अवश्य करना चाहिए |
खिलाफत की शुरुआत : सन 632 में पैगम्बर मुहम्मद का देहांत हो गया और अगले पैगम्बर की वैधता के आभाव में राजनितिक सत्ता उम्मा को सौप दी गई | सबसे पहला खलीफा हजरत अबु बकर को बनाया गया | इस प्रकार खिलाफत संस्था का आरंभ हुआ | समुदाय का नेता पैगम्बर का प्रतिनिधि अर्थात खलीफा बन गया |
खिलाफत का अंत : सन 632 में पैगम्बर हजरत मुहम्मद के देहांत के बाद खिलाफत की गद्दी को चार खलीफाओं ने सुसज्जित किया | अंतिम और चौथे खलीफा हजरत अली की हत्या के बाद खिलाफत को समाप्त कर दिया गया और मुआविया ने 661 में अपने आप को खलीफा घोषित कर दिया और उमय्यद वंश की स्थापना की जो 750 तक चलता रहा | चूँकि उमय्यद वंश से एक राजतन्त्र की स्थापना हुआ | विशाल इस्लामी क्षेत्र होने के कारण मदीना में स्थापित खिलाफत नष्ट हो गई |
उमय्यदों का शासन : उमय्यद ने दमिश्क को अपना राजधानी बनाया और 90 वर्ष तक शासन किया | उमय्यद राज्य अरब में एक साम्राज्यिक शक्ति बनकर उभरा | वह सीधे इस्लाम पर आधारित नहीं था | बल्कि यह शासन शासन-कला और सीरियाई सैनिकों की वफ़ादारी के बल पर चल रहा था | फिर भी इस्लाम उमय्यद शासन को मान्यता प्रदान कर रहा था |
उमय्यद शासन व्यवस्था की विशेषताएँ :
(i) इसके सैनिक वफादार थे |
(ii) प्रशासन में ईसाई सलाहकार और इसके अलावा जरतुश्त लिपिक और अधिकारी भी शामिल थे।
(iii) उन्होंने अपनी अरबी सामाजिक पहचान बनाए रखी |
(iv) यह खिलाफत पर आधारित शासन नहीं था अपितु यह राजतन्त्र पर आधारित था |
(v) उन्होंने वंशगत उतराधिकारी परंपरा की शुरुआत की |
अब्बासी क्रांति : उमय्यादों के शासन को अब्बासियों में दुष्टों का शासन बताया और यह दावा किया कि वे पैगम्बर मुहम्मद के मूल इस्लाम की पुनर्स्थापना करेंगे | अब्बासियों ने 'दवा' नामक एक आन्दोलन चला कर उमय्यद वंश के इस शासन को उखाड़ फेंका | इसी के साथ इस क्रांति से केवल वंश का परिवर्तन ही नहीं हुआ बल्कि इस्लाम के राजनैतिक ढाँचे और उसकी संस्कृति में भी बदलाव आये | इसे ही अब्बासी क्रांति के नाम से जाना जाता है |
अब्बासी क्रांति के कारण :
(i) अरब सैनिक अधिकांशत: जो ईरान से आये थे और वे सीरियाई लोगों के प्रभुत्व से नाराज थे |
(ii) उमय्यादों ने अरब नागरिकों से करों में रियायतों और विशेषाधिकार देने के वायदों को पूरा नहीं किया था |
(iii) ईरानी मुसलमानों को अपनी जातीय चेतना से ग्रस्त अरबों के तिरस्कार का शिकार होना पड़ा था जिससे वे किसी भी अभियान में शामिल होने के इक्षुक थे |
(iv) उमय्यद शासन राजतन्त्र पर आधारित शासन था |
अब्बासियों की विशेषताएँ : अब्बासियों की निम्नलिखित विशेषताएँ थी |
(i) अब्बासी शासन के अंतर्गत अरबों के प्रभाव में गिरावट आई | इसके विपरीत ईरानी संस्कृति का महत्त्व बढ़ गया |
(ii) अब्बासियों ने अपनी राजधानी बगदाद में स्थापित किया |
(iii) प्रशासन में इराक और खुरासान की अधिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सेना तथा नौकरशाही का गैर-कबीलाई आधार पर पुर्नगठन किया गया |
(iv) अब्बासी शासकों ने खिलाफत की धार्मिक स्थिति तथा कार्यों को और मजबूत बनाया और इस्लामी संस्थाओं एवं विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया |
(v) अब्बासियों ने भी उमय्यादों की तरह राजतन्त्र को ही जारी रखा |
इस्लामी जगत में नयी फारसी का विकास एवं फिरदौस का योगदान :
गजनी साम्राज्य : धर्मयुद्ध : 1095 से 1291 ई० के बीच ईसाईयों और मुसलमानों के बीच कई युद्ध हुए जिसे धर्मयुद्ध के नाम से जाना जाता है |
ये धर्मयुद्ध तीन थे :
(1) प्रथम धर्मयुद्ध : प्रथम धर्मयुद्ध 1098 ई० और 1099 ई० में फ्रांस और इटली के सैनिकों ने सीरिया में एंटीओक तथा येरुसलम चढाई की और इन्हें जीत लिया | ईसाईयों द्वारा जेरुसलम में मुसलमानों और यहूदियों की निर्मम हत्याएँ की गई | शीघ्र ही ईसाईयों ने सीरिया-फिलस्तीन के क्षेत्र में इस धर्मयुद्ध के द्वारा चार राज्य स्थापित कर लिए | इन क्षेत्रों को सामूहिक रूप से "आउटरैमर" कहा जाता था | बाद के सभी युद्ध इसकी रक्षा और विस्तार के लिए लड़े गए |
(2) द्वितीय धर्मयुद्ध : कुछ समय तक ही आउटरैमर प्रदेश ईसाईयों के अधीन सूरक्षित रहा | परन्तु तुर्कों ने 1144 ई० में एडेरस्सा पर अधिकार कर लिया तो पोप ने एक दूसरे धर्मयुद्ध (1145-1149) के लिए अपील की। एक जर्मन और फ्रांसिसी सेना ने दमिश्क पर कब्जा करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें हरा कर घर लौटने के लिए मजबूर कर दिया गया। इसके बाद आउटरैमर की शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होती गई। धर्मयुद्ध का जोश अब खत्म हो गया और ईसाई शासकों ने विलासिता से जीना और नए-नए इलाकों के लिए लड़ाई करना शुरू कर दिया। सलाह अल-दीन (सलादीन) ने एक मिस्री-सीरियाई साम्राज्य स्थापित किया और ईसाइयों के विरुद्ध धर्मयुद्ध करने का आह्वान किया, और उन्हें 1187 में पराजित कर दिया। उसने पहले धर्मयुद्ध के लगभग एक शताब्दी बाद, जेरूसलम पर फिर से कब्जा कर लिया। उस समय के अभिलेखों से संकेत मिलता है कि ईसाई लोगों के साथ सलाह अल-दीन का व्यवहार दयामय था, जो विशेष रूप से उस तरीके के व्यवहार के विपरीत था, जैसा पहले ईसाइयों ने मुसलमानों और यहूदियों के साथ किया था।
(3) तृतीय धर्मयुद्ध : दुसरे धर्मयुद्ध में ईसाईयों से राज्य और शहर मुसलमानों द्वारा छीन जाने से 1189 में तीसरे धर्मयुद्ध के लिए प्रोत्साहन मिला, लेकिन धर्मयुद्ध करने वाले फिलिस्तीन में कुछ तटवर्ती शहरों और ईसाई तीर्थयात्रियों के लिए जेरूसलम में मुक्त रूप से प्रवेश के सिवाय और कुछ प्राप्त नहीं कर सके | मिस्र के शासकों, मामलुकों ने अंततः 1291 में धर्मयुद्ध करने वाले सभी ईसाइयों को समूचे फिलिस्तीन से बाहर निकाल दिया। धीरे-धीरे यूरोप की इस्लाम में सैनिक दिलचस्पी समाप्त हो गई और उसका ध्यान अपने आंतरिक राजनीतिक और सांस्वृफतिक विकास की ओर केन्द्रित हो गया।
धर्मयुद्धों का ईसाई-मुस्लिम संबंधों पर स्थायी प्रभाव :
(i) मुस्लिम राज्यों का अपने ईसाई प्रजाजनों की ओर कठोर रुख, जो लड़ाइयों की कड़वी यादों और मिली-जुली आबादी वाले इलाकों में सुरक्षा की ज़रूरतों का परिणाम था।
(ii) मुस्लिम सत्ता की बहाली के बाद भी पूर्व और पश्चिम के बीच व्यापार में इटली के व्यापारिक समुदायों का अधिक प्रभाव |
धर्मयुद्ध के लिए उत्तरदायी परिस्थितियाँ : धर्मयुद्ध के लिए निम्नलिखित परिस्थितयाँ उत्तरदायी थी |
(i) ईसाईयों के लिए फिलिस्तीन एक 'पवित्र भूमि' थी | यहाँ ईसाईयों के अधिकांश धार्मिक स्थल थे | जिस पर मुसलमानों का कब्ज़ा हो चूका था |
(ii) फिलिस्तीन का शहर जेरुसलम में ही ईसा मसीह को क्रूस पर लटकाया गया था तथा पुन: जीवित होने का स्थान माना जाता है | इस स्थान को लेकर मुस्लिम जगत और यूरोपीय ईसाईयों के बीच शत्रुता थी |
(iii) पादरी और योद्धा वर्ग राजनितिक स्थिरता के लिए प्रयत्नशील थे |
(iv) मुस्लिम जगत के प्रति शत्रुता ग्याहरवीं शताब्दी में और अधिक स्पष्ट हो गई। नार्मनों, हंगरीवासियों और कुछ स्लाव लोगों को ईसाई बना लिया गया था और अब केवल मुसलमान मुख्य शत्रु रह गए थे।
(v) ईश्वरीय शांति आंदोलन ने सामंती समाज की आक्रमणकारी प्रवृत्तियों को ईसाई जगत से हटा कर ईश्वर के ‘शत्रुओं’ की ओर मोड़ दिया। इससे एक ऐसे वातावरण का निर्माण हो गया, जिसमें अविश्वासियों (विधर्मियों( के खिलाफ लड़ाई न केवल उचित अपितु प्रशंसनीय समझी जाने लगी।
(vi) 1095 में, पोप ने बाइन्ज़ेन्टाइन सम्राट के साथ मिलकर पुण्य देश (होली लैंड) को मुक्त कराने के लिए ईश्वर के नाम पर युद्ध के लिए आह्वान किया |
मध्यकालीन इस्लामी जगत में शहरीकरण की प्रमुख विशेषताएँ :
(i) मध्यकालीन इस्लामी जगत में शहरों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई | परिणामस्वरूप इस्लामी सभ्यता बहुत तेजी से फली-फूली और और भी नए शहरों का निर्माण हुआ | नए नए जगहों को नयी राजधानियों बनाई गई |
(ii) शहर के केंद्र में दो भवन-समूह होते थे, जहाँ से सांस्कृतिक और आर्थिक शक्ति का प्रसारण
होता था: उनमें एक मस्जिद (मस्जिद अल-जामी) होती थी जहाँ सामूहिक नमाज पढ़ी जाती
थी। यह इतनी बड़ी होती थी कि दूर से दिखाई दे सकती थी। दूसरा भवन-समूह केन्द्रीय मंडी (सुक) था, जिसमें दुकानों की कतारें होती थीं, व्यापारियों के आवास (फंदुक) और सर्राफा कार्यालय होता था।
(iii) शहर प्रशासकों (जो राज्य के आयन अथवा नेत्र थे) और विद्वानों और व्यापारियों (तुज्जर) के लिए घर होते थे, जो केद्र के निकट रहते थे।
(iv) सामान्य नागरिकों और सैनिकों के रहने के क्वार्टर बाहरी घेरे में होते थे, और प्रत्येक में अपनी मस्जिद, गिरजाघर अथवा सिनेगोग (यहूदी प्रार्थनाघर), छोटी मंडी और सार्वजनिक स्नानघर (हमाम) और एक महत्त्वपूर्ण सभा-स्थल होता था।
(v) शहर के बाहरी इलाकों में शहरी गरीबों के मकान, देहातों से लाई जाने वाली हरी सब्जियों और फलों के लिए बाजार, काफिलों के ठिकाने और ‘अस्वच्छ’ दुकानें, जैसे चमड़ा साफ करने या रँगने की दुकानें और कसाई की दुकानें होती थीं।
(vi) शहर की दीवारों के बाहर कब्रिस्तान और सराय होते थे। सराय में लोग उस समय आराम कर सकते थे जब शहर के दरवाजे बंद कर दिए गए हों। सभी शहरों का नक्शा एक जैसा नहीं होता था, इस नक्शे में परिदृश्य, राजनीतिक परंपराओं और ऐतिहासिक घटनाओं के आधर पर परिवर्तन किए जा सकते थे।
बुवाहियों का शासन : 945 में ईरान के कैस्पियन क्षेत्र के बुवाही नामक शिया वंश ने बगदाद पर अधिकार कर लिया | इस प्रकार अब्बासियों के शासन का पूरी तरह अंत हो गया |
नोट :
- उम्य्यद खलीफा मुआविया ने दमिश्क को अपनी राजधानी बनाया
- उम्य्यद ने 90 वर्ष तक शासन किया
- अब्बासी 2 शताब्दी अर्थात 200 वर्षों तक सता में बने रहे
- उमय्यद शासन का अंतिम खलीफा मारवान था
- खिलाफत के मुख्य दो उद्देश्य :
(i) कबीलों पर नियंत्रण रखना, जिनसे मिलकर उम्मा का गठन हुआ था |
(ii) और इस्लामी राज्य के लिए धन एवं संसाधन जुटाना |
- अब्द अल-मलिक ने सिक्कों में निम्नलिखित सुधार किया
(i) सिक्के पर दिखाया गया है कि लंबे बालों व दाढ़ी वाला खलीफा पारंपरिक अरबी कपडे पहने हुए है और उसके हाथ में तलवार है |
(ii) सिक्कों पर अरबी में कुरान की आयतें लिखीं हुयी थी |
(iii) सिक्कों का वजन एवं प्रारूप पहले के मुकाबले उन्नत था |
(iv) अब्द अल-मालिक का मौद्रिक सुधार उसके राज्य-वित्त के पुनर्गठन से जुड़े हुए थे |
Question
Question 1 : पैगम्बर मुहम्मद ने प्रथम सार्वजनिक उपदेश कब दिये?
1. 610
2. 612
3. 622
4. 627
Answer
Correct Anaswer : 2
Explanation:
612
1144
Question 2 : उम्मयद खिलाफत वंश की स्थापना किसने की?
1. मुआविया
2. याजीद
3. उस्मान
4. वालीद
Answer
Correct Anaswer : 1
Explanation:
मुआविया
1145
Question 3 : मुस्लिम कानून के किस शाखा को सर्वाधिक रूढ़िवादी माना गया है?
1. मलिकी
2. हनफी
3. शफीई
4. हनबली
Answer
Correct Anaswer : 4
Explanation:
हनबली
1146
Question 4 : किस सूफी संत ने फना के सिद्धांत दिये?
1. वयाजिद विस्तामी
2. रबिया
3. बहाउद्दीन जकारिया
4. सलीम चिश्ती
Answer
Correct Anaswer : 1
Explanation:
वयाजिद विस्तामी
1147
Question 5 : मुरुज अल-धाहाब की रचना किसने की?
1. मसूदी
2. ताबरी
3. अलबेरूनी
4. बालाधुरी
Answer
Correct Anaswer : 1
Explanation:
मसूदी
1148